BAPS N 202 (UOU BA 4th Semester): 18 Important Questions and Answers 2025
आज हम आपको UOU STUDY POINT की तरफ से UTTRAKHAND OPEN UNIVERSITY के पेपर कोड BAPS-N-202 के 4 सेमेस्टर के 18 महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर लाए है जो आपकी परीक्षा में बहुत उपयोगी होंगे
BAPS N 202 (UOU BA 4th Semester): 18 Important Questions and Answers 2025
प्रश्न 01 :- विविध काल में भारत के संवैधानिक विकास पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए
उत्तर :- भारत का संवैधानिक विकास एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो विभिन्न कालखंडों में हुई सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी परिवर्तनों से प्रभावित रहा है। इस विकास को निम्नलिखित प्रमुख कालों में बाँटा जा सकता है:
1. ब्रिटिश शासनकाल पूर्व स्थिति
ब्रिटिश शासन से पहले भारत में कोई एकीकृत संविधान नहीं था। विभिन्न क्षेत्रों में राजाओं और नवाबों के अपने-अपने नियम-कानून चलते थे। मौखिक परंपराएं और धार्मिक ग्रंथ जैसे मनुस्मृति आदि समाज को संचालित करते थे।
2. ब्रिटिश शासनकाल (1773 – 1947)
ब्रिटिश शासनकाल में भारत में संवैधानिक विकास की नींव रखी गई। इस दौरान ब्रिटिश संसद द्वारा कई अधिनियम पारित किए गए, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:
(क) रेगुलेटिंग एक्ट, 1773
ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन में सुधार के लिए यह पहला प्रयास था।
गवर्नर जनरल की नियुक्ति की गई।
(ख) पिट्स इंडिया एक्ट, 1784
कंपनी के व्यापार और प्रशासन को अलग-अलग किया गया।
ब्रिटिश सरकार की निगरानी बढ़ी।
(ग) चार्टर एक्ट्स (1813, 1833, 1853)
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को क्रमशः समाप्त किया गया।
1833 के अधिनियम से लॉर्ड विलियम बेंटिक पहले गवर्नर जनरल बने।
(घ) भारतीय परिषद अधिनियम, 1861, 1892, 1909
विधायिका में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल किया गया।
1909 का अधिनियम (मॉर्ले-मिंटो सुधार) मुस्लिमों को पृथक निर्वाचिका का अधिकार देता है।
(ङ) भारत सरकार अधिनियम, 1919
दाइarchy प्रणाली लागू हुई (केंद्र और प्रांतों में दोहरी शासन व्यवस्था)।
केंद्रीय विधान परिषद की शक्तियाँ बढ़ीं।
(च) भारत सरकार अधिनियम, 1935
यह सबसे महत्वपूर्ण अधिनियम था, जिससे भारत का पहला ढांचा आधारित संविधान विकसित हुआ।
संघीय व्यवस्था की बात की गई और प्रांतीय स्वायत्तता दी गई।
3. स्वतंत्रता संग्राम और संविधान निर्माण (1947 – 1950)
1947 में भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा का गठन हुआ।
डॉ. भीमराव अंबेडकर को संविधान सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
26 नवंबर 1949 को संविधान पारित हुआ और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
4. गणराज्य भारत में संवैधानिक विकास (1950 के बाद)
भारतीय संविधान में समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं (अब तक 100+ संशोधन)।
संविधान ने भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया।
न्यायपालिका, संसद, राज्यों का संघीय ढांचा, मौलिक अधिकार और कर्तव्य संविधान के स्तंभ हैं।
42वाँ संशोधन (1976) विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसमें "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़े गए।
निष्कर्ष
भारत का संवैधानिक विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो ब्रिटिश शासन के कानूनी ढाँचे से शुरू होकर आजादी के बाद एक समर्पित लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तित हो चुका है। भारतीय संविधान आज विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, जो समय की आवश्यकता के अनुसार निरंतर विकसित हो रहा है।
प्रश्न 02 :- भारतीय संविधान के निर्माण के इतिहास का वर्णन कीजिए।
उत्तर :- भारतीय संविधान के निर्माण का इतिहास भारत की स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में गहराई से जुड़ा हुआ है। यह इतिहास न केवल संविधान सभा के गठन और कार्यप्रणाली तक सीमित है, बल्कि ब्रिटिश शासनकाल के दौरान भारत में हुए संवैधानिक विकासों से भी जुड़ा हुआ है। आइए इस इतिहास का क्रमबद्ध वर्णन करें:
1. प्रारंभिक संवैधानिक विकास (1773 – 1935)
(क) 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट
भारत में संवैधानिक विकास की नींव इस अधिनियम से पड़ी।
गवर्नर जनरल का पद स्थापित हुआ।
ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण बढ़ा।
(ख) 1858 का भारत सरकार अधिनियम
1857 की क्रांति के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ।
भारत सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन आ गया।
वायसराय का पद अस्तित्व में आया।
(ग) 1909 का मॉर्ले-मिंटो सुधार
पहली बार भारतीयों को विधानमंडलों में प्रतिनिधित्व मिला।
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई।
(घ) 1919 का मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार
द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) शुरू हुई।
केंद्र और प्रांतों में कुछ स्वायत्तता दी गई।
(ङ) 1935 का भारत सरकार अधिनियम
यह अधिनियम भारतीय संविधान का आधार बना।
संघीय ढांचा, प्रांतों को अधिक स्वायत्तता और मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया।
संघीय न्यायालय की स्थापना हुई।
2. संविधान सभा का गठन (1946)
संविधान सभा की स्थापना कैबिनेट मिशन योजना (1946) के तहत हुई।
9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष चुने गए।
डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष बने।
3. संविधान निर्माण की प्रक्रिया
संविधान निर्माण का कार्य 2 वर्ष, 11 माह और 18 दिन में संपन्न हुआ।
कुल 11 सत्र हुए।
संविधान सभा में विभिन्न समितियाँ गठित की गईं (जैसे- मसौदा समिति, अधिकार समिति)।
मसौदा समिति ने अनेक देशों के संविधान का अध्ययन किया।
4. संविधान का अंगीकरण और प्रवर्तन
26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अंगीकृत किया।
26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ और भारत एक गणराज्य बना।
इसी दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।
5. भारतीय संविधान की विशेषताएँ (संक्षेप में)
विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान।
संघात्मक ढांचा लेकिन एकात्मक प्रवृत्ति।
मौलिक अधिकार एवं नीति निदेशक सिद्धांत।
स्वतंत्र न्यायपालिका।
संसदीय शासन प्रणाली।
धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय पर बल।
निष्कर्ष:
भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐतिहासिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का परिणाम है, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम की भावना, विविध विचारधाराओं का समन्वय और आधुनिक लोकतंत्र की आवश्यकताओं का गहन अध्ययन समाहित है। यह संविधान भारतीय नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय की गारंटी देता है और भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है।
प्रश्न 3 :- भारतीय संविधान की उद्देशिका आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है। इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर :- भारतीय संविधान की उद्देशिका संविधान का वह भाग है जो इसकी आत्मा मानी जाती है। यह संविधान में उल्लिखित उद्देश्यों, आदर्शों और मूल मूल्यों का सार प्रस्तुत करती है। जब यह कहा जाता है कि "भारतीय संविधान की उद्देशिका आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है", तो इसका तात्पर्य यह है कि यह उद्देशिका अन्य सभी देशों की तुलना में अधिक संतुलित, व्यापक और स्पष्ट है।
उद्देशिका का पाठ:
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक; स्वतंत्रता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की; समानता, अवसर की समानता और प्रतिष्ठा सुनिश्चित करने के लिए; और इन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी यह संविधान सभा में यह संविधान अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
विशेषताएँ जो इसे सर्वश्रेष्ठ बनाती हैं
1. यह जनता की संप्रभुता को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। "हम भारत के लोग" वाक्य यह स्पष्ट करता है कि संविधान की सर्वोच्च शक्ति जनता के पास है।
2. यह भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न राष्ट्र घोषित करता है जो किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं है।
3. समाजवाद का सिद्धांत सामाजिक और आर्थिक समानता की गारंटी देता है।
4. पंथनिरपेक्षता राज्य को धर्म से अलग रखती है और सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देती है।
5. लोकतंत्र जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से सरकार चलाने की व्यवस्था है।
6. गणराज्य का तात्पर्य है कि राष्ट्र का सर्वोच्च पद किसी वंश के आधार पर नहीं बल्कि जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति को प्राप्त होता है।
7. यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता जैसे मूल्यों को बढ़ावा देता है जो किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र की आधारशिला होते हैं।
8. यह व्यक्ति की गरिमा की रक्षा और राष्ट्र की एकता व अखंडता को बनाए रखने का संकल्प दर्शाती है।
निष्कर्ष:
भारतीय संविधान की उद्देशिका में वे सभी तत्व समाहित हैं जो एक आदर्श लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक समाज की स्थापना के लिए आवश्यक हैं। इसकी भाषा सरल, स्पष्ट और भावनात्मक रूप से प्रभावशाली है। यही कारण है कि इसे अब तक लिखी गई सभी संवैधानिक उद्देशिकाओं में सबसे श्रेष्ठ और आदर्श माना जाता है।
प्रश्न 04: भारतीय संविधान की विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर :- भारतीय संविधान विश्व का सबसे विस्तृत और विस्तृत रूप से व्यवस्थित संविधान है। यह भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है और देश की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक संरचना का मार्गदर्शन करता है। इसकी अनेक विशेषताएँ हैं, जो इसे अन्य देशों के संविधान से विशिष्ट बनाती हैं।
भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ:
1. लिखित संविधान
भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है, जिसे संविधान सभा द्वारा 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन में तैयार किया गया। इसमें 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 12 अनुसूचियाँ (मूल रूप में 8) शामिल हैं।
2. संघात्मक व्यवस्था (Federal Structure)
भारत एक संघ है जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। यद्यपि यह संघात्मक है, परंतु इसमें एकात्मक (Unitary) तत्व भी विद्यमान हैं, जैसे कि आपातकालीन स्थिति में केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
3. संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य
इन मूल तत्वों को संविधान की उद्देशिका (Preamble) में स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है।
संप्रभुता: भारत पूर्ण रूप से स्वतंत्र है।
समाजवाद: समाज में समानता और सामाजिक न्याय का लक्ष्य।
धर्मनिरपेक्षता: राज्य किसी धर्म को नहीं मानता और सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखता है।
लोकतंत्र: जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता की सरकार।
गणराज्य: भारत का राष्ट्राध्यक्ष चुना जाता है, वह वंशानुगत नहीं होता।
4. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
संविधान में नागरिकों को छह मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं, जैसे – समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार, तथा संवैधानिक उपचार का अधिकार।
5. मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties)
42वें संशोधन (1976) के तहत 11 मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया, जो नागरिकों के प्रति उनके दायित्वों की व्याख्या करते हैं।
6. निदेशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy)
ये सिद्धांत आयरलैंड के संविधान से लिए गए हैं। ये सरकार को समाज में सामाजिक और आर्थिक न्याय लाने की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
7. स्वतंत्र न्यायपालिका
भारतीय संविधान न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र रखता है, जिससे वह निष्पक्ष निर्णय देने में सक्षम है। सर्वोच्च न्यायालय इसका सर्वोच्च अंग है।
8. संविधान की सर्वोच्चता
भारत में संविधान सर्वोच्च कानून है। संसद या कोई भी संस्था संविधान के विरुद्ध कानून नहीं बना सकती।
9. संविधान संशोधन की प्रक्रिया
संविधान को आवश्यकतानुसार संशोधित किया जा सकता है, किंतु यह प्रक्रिया जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों की तुलना में अधिक लचीली और कुछ मामलों में कठोर है।
10. विश्व के विभिन्न संविधान से ग्रहण की गई विशेषताएँ
भारतीय संविधान निर्माताओं ने विश्व के कई देशों से सर्वोत्तम विशेषताएँ लीं। जैसे -
ब्रिटेन से – संसदीय प्रणाली
अमेरिका से – मौलिक अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता
आयरलैंड से – निदेशक सिद्धांत
कनाडा से – संघीय ढांचा
निष्कर्ष:
भारतीय संविधान एक अद्वितीय दस्तावेज है, जिसमें विभिन्न विचारधाराओं और व्यवस्थाओं का समन्वय देखने को मिलता है। इसकी विशेषताएँ इसे न केवल एक सशक्त लोकतंत्र का आधार बनाती हैं, बल्कि यह विविधताओं से भरे देश को एक सूत्र में बाँधने का कार्य भी करती हैं।
प्रश्न 05: नागरिकता का अर्थ बताते हुए इसके ऐतिहासिक विकास पर विस्तृत विवेचना प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :- नागरिकता का अर्थ (Meaning of Citizenship)
नागरिकता (Citizenship) उस स्थिति को कहते हैं जिसमें किसी व्यक्ति को किसी राज्य का वैधानिक सदस्य माना जाता है और उसे उस राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकार एवं कर्तव्यों का लाभ मिलता है।
नागरिकता न केवल किसी व्यक्ति की कानूनी पहचान होती है, बल्कि यह उसके अधिकारों, उत्तरदायित्वों और राजनीतिक भागीदारी की मान्यता भी प्रदान करती है।
एक नागरिक को जो प्रमुख अधिकार प्राप्त होते हैं, वे हैं —
मतदान का अधिकार,
सरकारी सेवाओं में भागीदारी,
संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का संरक्षण।
नागरिकता का ऐतिहासिक विकास (Historical Evolution of Citizenship)
नागरिकता की अवधारणा का विकास एक दीर्घकालिक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। इसका आरंभ प्राचीन सभ्यताओं से लेकर आधुनिक राष्ट्र-राज्यों तक हुआ है। इसका विकास निम्नलिखित चरणों में देखा जा सकता है:
1. प्राचीन काल
नागरिकता की शुरुआत प्राचीन ग्रीस और रोम से मानी जाती है।
ग्रीस के एथेंस नगर में केवल वयस्क पुरुषों को नागरिक माना जाता था, जिन्हें मतदान और राजनीतिक निर्णयों में भाग लेने का अधिकार था।
महिलाओं, दासों और विदेशियों को नागरिकता नहीं मिलती थी।
2. रोमन साम्राज्य
रोम में नागरिकता को विस्तारित किया गया। शुरुआत में यह केवल रोमवासियों को प्राप्त थी।
लेकिन 212 ईस्वी में सम्राट कैराकल्ला ने पूरे रोमन साम्राज्य के स्वतंत्र पुरुषों को नागरिकता प्रदान कर दी।
इससे नागरिकता का विचार अधिक समावेशी हुआ।
3. मध्यकाल
मध्यकाल में "नागरिकता" की संकल्पना लगभग विलुप्त हो गई क्योंकि सामंती व्यवस्था और राजा की सर्वोच्चता स्थापित हो गई थी।
लोगों की पहचान प्रजा के रूप में होती थी, नागरिक नहीं माने जाते थे।
4. आधुनिक काल
17वीं और 18वीं शताब्दी में यूरोप में लोकतंत्र, राष्ट्रवाद और मानवाधिकारों के विचारों के विकास के साथ नागरिकता का पुनरुत्थान हुआ।
अमेरिकी क्रांति (1776) और फ्रांसीसी क्रांति (1789) ने नागरिकता को मानवाधिकारों से जोड़ा।
अब नागरिकता का अर्थ केवल राजनीतिक नहीं रहा, बल्कि उसमें सामाजिक और आर्थिक अधिकार भी शामिल हो गए।
5. भारत में नागरिकता का विकास
भारत में ब्रिटिश शासन के समय भारतीयों को पूर्ण नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान ने नागरिकता की परिभाषा स्पष्ट की।
संविधान के भाग II (अनुच्छेद 5 से 11) में नागरिकता से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं।
नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत नागरिकता प्राप्त करने की प्रक्रिया को कानूनी रूप दिया गया।
भारतीय नागरिकता की प्रमुख विशेषताएँ
1. एकल नागरिकता – भारत में सभी नागरिकों के लिए एक ही नागरिकता है, चाहे वे किसी भी राज्य के निवासी हों।
2. नागरिकता प्राप्त करने के तरीके – जन्म, वंश, पंजीकरण, प्राकृतिककरण, तथा क्षेत्र समावेशन के द्वारा।
3. नागरिकता की समाप्ति – त्याग, समाप्ति, या अनुहरण के माध्यम से।
निष्कर्ष:
नागरिकता का विकास मानव सभ्यता के राजनीतिक और सामाजिक विकास के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। यह व्यक्ति और राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध स्थापित करता है। आज के लोकतांत्रिक युग में नागरिकता केवल पहचान नहीं, बल्कि अधिकारों, कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का द्योतक है। भारतीय संविधान ने नागरिकता को व्यापक अधिकारों और जिम्मेदारियों के साथ एक सशक्त संस्था के रूप में स्थापित किया है।
प्रश्न 06: मौलिक अधिकार से आप क्या समझते हैं? स्वतंत्रता के अधिकार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :- मौलिक अधिकार का अर्थ :-
मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) वे अधिकार हैं जो भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को प्रदान किए गए हैं ताकि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो सके और लोकतांत्रिक व्यवस्था सशक्त बनी रहे। ये अधिकार संविधान के भाग–3 (अनुच्छेद 12 से 35) के अंतर्गत वर्णित हैं। इन्हें 'मौलिक' इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं।
इन अधिकारों की रक्षा भारतीय उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32) और उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226) द्वारा की जाती है। अगर किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है।
स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) :-
स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय संविधान का अत्यंत महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है। यह अनुच्छेद 19 से 22 तक विस्तृत है। इस अधिकार के अंतर्गत नागरिकों को कई प्रकार की स्वतंत्रताएँ दी गई हैं, जिससे वे अपनी इच्छानुसार जीवन जी सकें, विचार रख सकें और अपनी अभिव्यक्ति कर सकें।
अनुच्छेद 19: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि
अनुच्छेद 19 के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित 6 स्वतंत्रताएँ प्राप्त हैं—
1. वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
व्यक्ति अपने विचारों को बोलकर, लिखकर, चित्रों द्वारा आदि तरीकों से अभिव्यक्त कर सकता है।
2. शांति पूर्ण रूप से एकत्र होने की स्वतंत्रता
नागरिक शांतिपूर्वक सभा आयोजित कर सकते हैं।
3. संघ बनाने और संगठनों में शामिल होने की स्वतंत्रता
किसी भी संगठन, यूनियन या संस्था में सम्मिलित होने या उसे बनाने की स्वतंत्रता है।
4. भारत के किसी भी भाग में स्वतंत्र रूप से आवागमन की स्वतंत्रता
नागरिक पूरे भारत में कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं।
5. भारत के किसी भी भाग में रहने और बसने की स्वतंत्रता
नागरिक देश के किसी भी हिस्से में स्थायी रूप से निवास कर सकते हैं।
6. किसी भी व्यवसाय, व्यापार या पेशे को चुनने और चलाने की स्वतंत्रता नागरिक अपनी पसंद के किसी भी व्यवसाय या रोजगार में प्रवेश कर सकते हैं।
ध्यान दें: इन स्वतंत्रताओं पर संविधान के अनुच्छेद 19(2) से 19(6) तक कुछ यथोचित प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं जैसे– राष्ट्र की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता आदि की दृष्टि से।
अनुच्छेद 20:- दंड विधियों से संरक्षण
यह अनुच्छेद नागरिकों को निम्नलिखित सुरक्षा देता है—
पूर्वव्यापी दंड निषेध (Ex-post facto law)
किसी ऐसे कार्य के लिए दंड नहीं दिया जा सकता जो उस समय अपराध नहीं था जब वह कार्य किया गया।
एक ही अपराध के लिए दो बार दंड नहीं (Double Jeopardy)
स्वयं के खिलाफ गवाही न देने का अधिकार
अनुच्छेद 21:- जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण
कोई भी व्यक्ति अपने जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता, जब तक कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने इसे विस्तार देकर शिक्षा, स्वच्छ पर्यावरण, स्वास्थ्य, गरिमामय जीवन आदि को भी इसके अंतर्गत माना है।
अनुच्छेद 21(A): शिक्षा का अधिकार :
6 से 14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है।
अनुच्छेद 22: गिरफ़्तारी और निरोध के संबंध में संरक्षण :
इस अनुच्छेद में यह सुनिश्चित किया गया है कि—
व्यक्ति को बिना जानकारी के गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता।
उसे वकील करने का अधिकार है।
उसे 24 घंटे के अंदर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
निरोध के नियम भी तय किए गए हैं।
निष्कर्ष
मौलिक अधिकार भारतीय लोकतंत्र की आत्मा हैं। इनमें स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा, विचार, अभिव्यक्ति, जीवनशैली और व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है—यह कानून और समाजहित में उचित प्रतिबंधों के अधीन है।
प्रश्न 07:– नीति निदेशक तत्व राज्य को कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए किया गया भागीरथ प्रयास है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: भारतीय संविधान के भाग–4 (अनुच्छेद 36 से 51) में नीति निदेशक तत्वों (Directive Principles of State Policy) का वर्णन किया गया है। ये तत्व संविधान निर्माताओं की उस दूरदृष्टि का परिणाम हैं, जिसके माध्यम से वे भारतीय राज्य को एक "कल्याणकारी राज्य" (Welfare State) के रूप में विकसित करना चाहते थे।
नीति निदेशक तत्वों की परिभाषा:-
नीति निदेशक तत्व वे दिशा-निर्देश हैं जिन्हें संविधान ने भारत के राज्य को शासन संचालन में ध्यान में रखने के लिए निर्देशित किया है। ये तत्व न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को व्यवहार में लाने का प्रयास करते हैं।
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा :-
कल्याणकारी राज्य वह होता है जो केवल कानून-व्यवस्था बनाकर न रहे, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में नागरिकों के जीवन-स्तर को ऊपर उठाने के लिए सक्रिय प्रयास करे। उसमें गरीब, शोषित, पिछड़े और वंचित वर्गों की विशेष चिंता की जाती है।
नीति निदेशक तत्व – कल्याणकारी राज्य की दिशा में प्रयास: नीति निदेशक तत्वों में कई ऐसे प्रावधान हैं जो स्पष्ट रूप से कल्याणकारी राज्य की स्थापना का लक्ष्य रखते हैं:
1. सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना (अनुच्छेद 38):
असमानताओं को कम करने और समाज के कमजोर वर्गों को आगे लाने का प्रयास।
2. समान कार्य के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39):
पुरुषों और महिलाओं दोनों को बराबर वेतन का अधिकार दिलाना।
3. श्रमिकों का कल्याण (अनुच्छेद 41 से 43):
काम के अधिकार, शिक्षा, बेरोजगारी सहायता और श्रमिकों के लिए जीवन स्तर सुधारने की नीति।
4. निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा (अनुच्छेद 45):
बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा देना।
5. स्वास्थ्य और पोषण की व्यवस्था (अनुच्छेद 47):
जनस्वास्थ्य की उन्नति और कुपोषण को दूर करना।
6. महिलाओं और बच्चों का संरक्षण:
महिलाओं की गरिमा और बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना।
भागीरथ प्रयास क्यों कहा गया? :-
इन्हें भागीरथ प्रयास इसलिए कहा गया है क्योंकि:
इन नीतियों को लागू करना केवल कानूनी नहीं बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की मांग करता है।
भारत जैसे विविध, विशाल और संसाधन-सीमित देश में, सामाजिक समानता और न्याय की स्थापना करना एक कठिन लेकिन अत्यंत आवश्यक कार्य है।
ये प्रयास राष्ट्रनिर्माण की आध्यात्मिक एवं नैतिक प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।
निष्कर्ष:
नीति निदेशक तत्व भारतीय संविधान की वह प्रेरणादायक आत्मा हैं जो देश को सच्चे अर्थों में एक कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए दिशा प्रदान करती हैं। इनका पालन अनिवार्य न होने के बावजूद, ये शासन के लिए एक नैतिक और संवैधानिक दायित्व हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए राज्य निरंतर प्रयत्नशील रहता है। इसीलिए इन्हें भागीरथ प्रयास की संज्ञा दी जाती है।
प्रश्न 08 :- भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रियाओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर :- भारतीय संविधान को एक ऐसा दस्तावेज़ माना जाता है जो परिवर्तनशील (flexible) और स्थिरता (rigidness) दोनों गुणों को समाहित करता है। संविधान में समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलाव की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसमें संशोधन की व्यवस्था की गई है। इस प्रक्रिया का वर्णन अनुच्छेद 368 में किया गया है।
संविधान संशोधन की आवश्यकता :-
संविधान एक स्थायी दस्तावेज़ है, लेकिन समय के साथ बदलती सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन करना आवश्यक होता है। संशोधन की प्रक्रिया के बिना संविधान समय के अनुसार अप्रासंगिक हो सकता है।
भारतीय संविधान में संशोधन की विशेषताएँ :-
भारतीय संविधान न तो पूरी तरह कठोर है और न ही पूरी तरह लचीला। इसमें संविधान की मूल संरचना को सुरक्षित रखते हुए तीन प्रकार की संशोधन प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है। मूल ढाँचे (Basic Structure) में बिना हस्तक्षेप किए समयानुसार संशोधन किए जा सकते हैं।
भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया (अनुच्छेद 368)
अनुच्छेद 368 के अनुसार संविधान में संशोधन तीन प्रकार से किया जा सकता है:
1. साधारण बहुमत द्वारा संशोधन :-
इस प्रकार के संशोधन को संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से पारित किया जा सकता है। इसमें अनुच्छेद 368 की विशेष प्रक्रिया का पालन आवश्यक नहीं होता। यह संशोधन आम कानूनों की तरह किए जाते हैं, जैसे – संसद की कार्यप्रणाली, राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन, भाषा सूची में बदलाव आदि।
2. विशेष बहुमत द्वारा संशोधन :-
इस प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों में संशोधन विधेयक को उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होता है। इसमें केवल संसद की सहमति आवश्यक होती है। इस प्रक्रिया द्वारा मौलिक अधिकारों, नीति निदेशक सिद्धांतों आदि में संशोधन किए जाते हैं।
3. विशेष बहुमत + राज्यों की सहमति :-
कुछ संशोधन ऐसे होते हैं जिन्हें संसद के विशेष बहुमत से पारित करने के बाद देश के कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं की स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य होता है। ऐसे संशोधन संघीय ढांचे से संबंधित होते हैं जैसे – राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया, राज्यों और केंद्र के बीच शक्तियों का वितरण, उच्च न्यायालयों की शक्तियाँ आदि।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया के चरण :-
1. सबसे पहले संसद में कोई भी सदस्य संशोधन विधेयक प्रस्तुत कर सकता है।
2. इसके बाद विधेयक को संसद के दोनों सदनों में निर्धारित बहुमत से पारित किया जाता है।
3. जिन संशोधनों के लिए आवश्यक हो, उनमें राज्यों की विधानसभाओं की स्वीकृति प्राप्त की जाती है।
4. अंत में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन लागू हो जाता है।
न्यायपालिका की भूमिका :-
संविधान संशोधन की प्रक्रिया में सर्वोच्च न्यायालय ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। "केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)" मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, परंतु संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती।
प्रमुख संशोधनों के उदाहरण :-
पहला संविधान संशोधन 1951 में हुआ जिसमें भाषण की स्वतंत्रता पर कुछ सीमाएँ लगाई गईं और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।
42वाँ संशोधन 1976 में हुआ जिसमें "समाजवादी", "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़े गए और नीति निदेशक सिद्धांतों को बल मिला।
44वाँ संशोधन 1978 में आपातकालीन शक्तियों में कटौती की गई।
73वाँ संशोधन 1992 में हुआ जिससे पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा मिला।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया इसे समय के अनुरूप बनाए रखने में सहायक है। यह प्रक्रिया संविधान की स्थिरता और लचीलापन दोनों को बनाए रखती है। मूल ढाँचे की रक्षा करते हुए, आवश्यकतानुसार इसमें परिवर्तन की व्यवस्था एक लोकतांत्रिक और दूरदर्शी सोच का प्रतीक है।
प्रश्न 09 :- राष्ट्रपति कार्यपालिका के औपचारिक प्रधान से अधिक है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान कहा गया है, परंतु यह कहना कि वह केवल एक औपचारिक प्रधान है, पूर्णतः सही नहीं है। राष्ट्रपति की भूमिका केवल प्रतीकात्मक न होकर संविधानिक व्यवस्था के अनुसार कई महत्त्वपूर्ण कर्तव्यों और शक्तियों से युक्त होती है।
1. संवैधानिक स्थिति :-
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 53 कहता है कि "संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी।" इसका अर्थ यह है कि सरकार के सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम पर किए जाते हैं, यद्यपि उनका निष्पादन मंत्रिपरिषद की सलाह पर होता है।
2. राष्ट्रपति की वास्तविक भूमिका :-
राष्ट्रपति न केवल औपचारिक प्रधान हैं बल्कि कई ऐसे कार्य भी करते हैं जो उन्हें "केवल रबर स्टैम्प" से अधिक बनाते हैं, जैसे :-
आपातकाल की घोषणा करना।
प्रधानमंत्री की नियुक्ति।
संसद को भंग करना।
अध्यादेश जारी करना।
विदेशों से संधि करना।
इन कार्यों में यद्यपि वे मंत्रिपरिषद की सलाह से कार्य करते हैं, परंतु विशेष परिस्थितियों में उनका विवेकाधिकार भी प्रभावशाली बन जाता है।
3. विवेकाधिकार की भूमिका :-
कुछ स्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ राष्ट्रपति को अपनी बुद्धिमत्ता और विवेक से कार्य करना होता है, जैसे – जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिला हो तब प्रधानमंत्री की नियुक्ति।
किसी बिल को पुनर्विचार हेतु संसद को लौटाना।
अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा पर निर्णय।
4. अवधारणा का निष्कर्ष :-
इस प्रकार, यद्यपि राष्ट्रपति को भारत के संविधान में औपचारिक कार्यपालिका प्रमुख कहा गया है, किंतु उनका कार्यक्षेत्र और संवैधानिक शक्तियाँ उन्हें एक सक्रिय और प्रभावी संवैधानिक संस्था बनाती हैं। वे राष्ट्र के प्रतीक तो हैं ही, साथ ही संकट की घड़ी में संविधान के संरक्षक के रूप में भी कार्य कर सकते हैं।
निष्कर्षतः,
राष्ट्रपति केवल औपचारिक प्रमुख नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता और गरिमा के संरक्षक हैं। उनकी भूमिका संवैधानिक सीमाओं में रहते हुए भी गहन और महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 10 :- प्रधानमंत्री की सदन के नेता और सरकार के मुखिया के रूप में महत्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :- प्रधानमंत्री भारतीय संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका का वास्तविक प्रमुख होता है। वह न केवल मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष होता है, बल्कि लोकसभा में सरकार का नेता भी होता है। प्रधानमंत्री का पद अत्यंत प्रभावशाली है क्योंकि वही सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का निर्धारण करता है और संसद तथा जनता के समक्ष उनकी जवाबदेही तय करता है।
प्रधानमंत्री के महत्व की व्याख्या दो प्रमुख भूमिकाओं में:
1. सदन के नेता के रूप में प्रधानमंत्री का महत्व :-
प्रधानमंत्री लोकसभा में सत्तारूढ़ दल (या गठबंधन) का नेता होता है और इसी नाते संसद में सरकार का प्रतिनिधित्व करता है संसद की कार्यवाही को व्यवस्थित करना, चर्चा और बहस की दिशा तय करना, उसकी रणनीति बनाना प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी होती है। प्रधानमंत्री संसद में सरकार की नीतियों का समर्थन करते हैं और विपक्ष के सवालों का उत्तर देने के लिए जिम्मेदार होते हैं। वह संसद में विश्वासमत प्राप्त कराकर सरकार के अस्तित्व को वैधता प्रदान करता है।
2. सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमंत्री का महत्व :-
प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का प्रमुख होता है और उसके निर्णयों का अंतिम नियंत्रण उसी के पास होता है। वह मंत्रियों की नियुक्ति, पदावनति, विभागों का बंटवारा और इस्तीफे की सिफारिश राष्ट्रपति को करता है। प्रधानमंत्री सभी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय नीतियों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन में केंद्रीय भूमिका निभाता है। विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के बीच समन्वय बनाए रखना, प्रशासन की दिशा तय करना, और विकास कार्यों की निगरानी करना प्रधानमंत्री की भूमिका का भाग है। राष्ट्रीय आपात स्थिति, युद्ध या संकट के समय प्रधानमंत्री देश को दिशा देने वाला नेतृत्व प्रदान करता है।
निष्कर्ष :-
प्रधानमंत्री भारतीय शासन प्रणाली में केंद्रीय धुरी है। वह न केवल सरकार की कार्यपालिका का नेता है, बल्कि संसद में नीति निर्धारण और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने वाला भी है। इसलिए, प्रधानमंत्री का पद भारतीय लोकतंत्र के सुचारू संचालन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रभावशाली है।
प्रश्न 11 – भारत के प्रधानमंत्री के पद एवं स्थिति की विवेचना कीजिए।
उत्तर – भारत के प्रधानमंत्री को भारतीय सरकार का वास्तविक प्रधान तथा कार्यपालिका का मुख्य संचालक माना जाता है। भारत का संविधान एक संविधानात्मक शासन प्रणाली स्थापित करता है, जिसमें प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। प्रधानमंत्री का पद न केवल राजनीतिक दृष्टि से बल्कि प्रशासनिक दृष्टि से भी अत्यंत शक्तिशाली और प्रभावशाली है। यद्यपि राष्ट्रपति भारतीय गणराज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, परंतु वास्तविक कार्यपालिका शक्ति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के पास होती है।
प्रधानमंत्री का पद -
भारत का प्रधानमंत्री संविधान के अनुच्छेद 74(1) और अनुच्छेद 75 के अंतर्गत नियुक्त किया जाता है।
प्रधानमंत्री वह होता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता होता है। राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की नियुक्ति की जाती है, परंतु वह उसी व्यक्ति को नियुक्त करता है जो संसद में सबसे अधिक सदस्यों का समर्थन प्राप्त कर सके।
प्रधानमंत्री की स्थिति एवं महत्व -
प्रधानमंत्री की स्थिति को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है:
1. मंत्रिपरिषद का प्रधान -
प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का नेता होता है। वह मंत्रियों की नियुक्ति, कार्यविभाजन और त्यागपत्र स्वीकृत करने में केंद्रीय भूमिका निभाता है।
> "प्रधानमंत्री ही सरकार का वास्तविक नेतृत्व करता है।"
2. संसद में सरकार का नेता -
प्रधानमंत्री संसद में सरकार का प्रमुख प्रवक्ता होता है। वह लोकसभा में नीति-निर्धारण करता है, वाद-विवादों का उत्तर देता है और बहुमत बनाए रखता है।
3. नीति-निर्माता -
देश की आंतरिक और विदेश नीति का निर्धारण मुख्यतः प्रधानमंत्री के नेतृत्व में होता है। वह सभी नीतिगत निर्णयों में अंतिम शब्द होता है।
4. राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच सेतु -
प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के निर्णयों की जानकारी देता है। यह दायित्व संविधान के अनुच्छेद 78 में स्पष्ट किया गया है।
5. प्रशासन का संचालनकर्ता -
प्रधानमंत्री पूरे प्रशासनिक तंत्र के संचालन में मार्गदर्शन करता है। विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय और निगरानी की जिम्मेदारी उसी पर होती है।
6. राष्ट्रीय संकटों में निर्णायक नेतृत्व -
आपातकाल, युद्ध या अन्य राष्ट्रीय संकटों के समय प्रधानमंत्री का नेतृत्व अत्यधिक प्रभावी होता है। वह राष्ट्रीय भावना का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रधानमंत्री की शक्तियाँ -
मंत्रियों की नियुक्ति एवं त्यागपत्र स्वीकार करना राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के निर्णयों से अवगत कराना संसद में सरकार की नीतियों का प्रतिपादन करना प्रशासनिक कार्यों में अंतिम निर्णय लेना अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधित्व और समझौते करना
निष्कर्ष:
प्रधानमंत्री भारत के संसदीय शासन का केन्द्रबिंदु है। वह न केवल नीतियों का निर्धारण करता है बल्कि प्रशासन के हर पहलू पर नियंत्रण भी रखता है। प्रधानमंत्री की स्थिति भारतीय शासन प्रणाली में "संचालक शक्ति" (Driving Force) के रूप में मानी जाती है।
प्रश्न 12 – संसंद के संगठन और कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर: भारतीय संविधान ने देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक शक्तिशाली विधायिका का प्रावधान किया है, जिसे “संसद” कहा जाता है। संसद देश की सर्वोच्च विधायी संस्था है और इसका मुख्य कार्य कानून बनाना है। भारत में संसद संघ की विधायिका है और यह दो सदनों तथा राष्ट्रपति से मिलकर बनती है।
1. संसद का संगठन (Organization of Parliament):
भारतीय संसद तीन घटकों से मिलकर बनी होती है:
(i) राष्ट्रपति:
राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है। संसद के कार्यों को राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक होती है। राष्ट्रपति द्वारा ही संसद का अधिवेशन बुलाया जाता है, भंग किया जाता है, और अध्यादेश भी जारी किए जा सकते हैं।
(ii) लोकसभा (निम्न सदन):
इसे जनता का सदन कहा जाता है। इसके सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने जाते हैं। वर्तमान में लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 552 है लोकसभा का कार्यकाल सामान्यतः 5 वर्ष का होता है।
(iii) राज्यसभा (उच्च सदन):
इसे स्थायी सदन कहा जाता है क्योंकि यह कभी भंग नहीं होती प्रत्येक दो वर्षों में इसके एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं राज्यसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 है। इसके अधिकांश सदस्य राज्य विधानसभाओं द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं।
2. संसद के प्रमुख कार्य (Functions of Parliament):
(i) विधायी कार्य (Legislative Functions):
संसद का मुख्य कार्य कानून बनाना है। वह केंद्र सरकार के विषयों पर कानून बना सकती है। दोनों सदनों की स्वीकृति और राष्ट्रपति की अनुमति से कोई भी विधेयक कानून बनता है।
(ii) वित्तीय कार्य (Financial Functions):
संसद को सरकार की वित्तीय शक्तियाँ नियंत्रित करने का अधिकार है। वार्षिक बजट लोकसभा में प्रस्तुत किया जाता है और संसद द्वारा पारित किया जाता है। कोई भी कर संसद की अनुमति के बिना नहीं लगाया जा सकता।
(iii) कार्यपालिका पर नियंत्रण (Control over Executive):
संसद सरकार की कार्यपालिका पर निगरानी रखती है। प्रश्नकाल, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, विश्वास मत, अविश्वास प्रस्ताव जैसे उपकरणों से कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
(iv) संसदीय चर्चा और बहस (Deliberative Function):
संसद राष्ट्रीय मुद्दों पर खुलकर बहस और विचार करती है। इससे जनमत का प्रतिनिधित्व होता है।
(v) संविधान संशोधन (Amendment Function):
संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है (अनुच्छेद 368 के अंतर्गत)। यह कार्य विशेष बहुमत से किया जाता है।
(vi) न्यायिक कार्य (Judicial Functions):
संसद राष्ट्रपति पर महाभियोग चला सकती है। न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया भी संसद द्वारा ही शुरू होती है।
निष्कर्ष:
भारतीय संसद एक लोकतांत्रिक संस्था है जो जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इसका संगठन तीन भागों – राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा – में विभाजित है, और यह विधायी, वित्तीय, कार्यपालिका पर नियंत्रण, संवैधानिक संशोधन आदि अनेक कार्यों को संपन्न करती है। संसदीय प्रणाली के अंतर्गत संसद का महत्व अत्यधिक है क्योंकि यह लोकतंत्र का आधार स्तंभ है।
प्रश्न 13 – सर्वोच्च न्यायालय के संगठन और कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर: भारतीय संविधान में न्यायपालिका को एक स्वतंत्र एवं शक्तिशाली संस्था के रूप में स्थापित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) देश की शीर्ष न्यायिक संस्था है, जो संविधान की व्याख्या करती है और अंतिम अपील की अदालत है। इसे संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 तक के अंतर्गत स्थापित किया गया है।
1. सर्वोच्च न्यायालय का संगठन (Organization of Supreme Court):
(i) स्थापना:
सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 28 जनवरी 1950 को की गई थी। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
(ii) न्यायाधीशों की संख्या:
प्रारंभ में इसमें एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice) और 7 अन्य न्यायाधीश होते थे। संविधान में अधिकतम संख्या का उल्लेख नहीं है; यह संसद द्वारा तय की जाती है। वर्तमान में न्यायाधीशों की संख्या एक मुख्य न्यायाधीश सहित 33 अन्य न्यायाधीश तक हो सकती है।
(iii) नियुक्ति:
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश की सलाह से की जाती है।
(iv) योग्यता:
न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति को निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए:
वह भारत का नागरिक हो। उच्च न्यायालय का कम-से-कम 5 वर्षों तक न्यायाधीश रहा हो, या उच्च न्यायालय में कम-से-कम 10 वर्षों तक वकील रहा हो, या
राष्ट्रपति की राय में वह एक प्रतिष्ठित न्यायविद् हो।
(v) कार्यकाल और सेवा समाप्ति:
न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक पद पर बने रहते हैं। राष्ट्रपति के आदेश से, संसद की विशेष प्रक्रिया द्वारा उन्हें पद से हटाया जा सकता है (महाभियोग)।
2. सर्वोच्च न्यायालय के कार्य (Functions of Supreme Court):
(i) मौलिक अधिकारों की संरक्षक (Protector of Fundamental Rights): यदि नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका (Writ Petition) दायर कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत यह अधिकार दिया गया है।
(ii) संविधान की व्याख्या (Interpretation of Constitution):
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की अंतिम व्याख्याकार है। यह विभिन्न संवैधानिक जटिलताओं को सुलझाता है।
(iii) अपीलीय अधिकारिता (Appellate Jurisdiction):
यह देश की सर्वोच्च अपीलीय अदालत है। उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अंतिम अपील यहीं की जाती है – दीवानी, आपराधिक और संवैधानिक मामलों में।
(iv) परामर्शात्मक कार्य (Advisory Jurisdiction):
राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत किसी प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकते हैं।
(v) मौलिक अधिकारों के रक्षक (Guardian of the Constitution): यह विधायिका एवं कार्यपालिका के कार्यों की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) कर सकता है और असंवैधानिक कृत्यों को निरस्त कर सकता है।
(vi) मूल अधिकारिता (Original Jurisdiction):
राज्यों के बीच या राज्यों और केंद्र के बीच विवादों को सीधे सुनने की शक्ति। यह अनुच्छेद 131 के अंतर्गत प्राप्त है।
(vii) लोकहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL): गरीब, कमजोर या अशिक्षित नागरिकों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए न्यायालय स्वतः संज्ञान लेकर कार्य कर सकता है।
निष्कर्ष:
सर्वोच्च न्यायालय भारतीय न्यायिक व्यवस्था की रीढ़ है। यह संविधान की सर्वोच्च व्याख्याकार, नागरिकों के अधिकारों की संरक्षक तथा संघीय ढांचे की रक्षा करने वाली संस्था है। इसके संगठन में न्यायाधीशों की नियुक्ति, योग्यता एवं कार्यकाल स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। कार्यों की दृष्टि से यह न्यायिक, परामर्शात्मक, अपीलीय और रक्षक भूमिका निभाता है। लोकतांत्रिक प्रणाली में इसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है।
प्रश्न 14 – केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
उत्तर : भारतीय संविधान संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाता है, जिसमें केन्द्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण सुनिश्चित किया गया है। यह वितरण इस प्रकार किया गया है कि केन्द्र और राज्य दोनों अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में कानून बना सकें और शासन चला सकें। लेकिन भारत का संघात्मक ढांचा पारंपरिक संघों की तुलना में कुछ भिन्न है, क्योंकि इसमें केन्द्र को अपेक्षाकृत अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इस कारण इसे 'केन्द्राभिमुख संघीय व्यवस्था' कहा जाता है।
भारतीय संविधान के भाग-11 (अनुच्छेद 245 से 255) में केन्द्र और राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्धों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। अनुच्छेद 245 यह निर्धारित करता है कि संसद सम्पूर्ण भारत या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकती है, जबकि राज्य विधानमंडल केवल अपने राज्य की सीमा में विधायी अधिकार रखता है।
विधायी शक्तियों के वितरण के लिए संविधान में तीन विषय-सूचियाँ दी गई हैं – संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची।
संघ सूची में वे विषय आते हैं जिन पर केवल संसद को कानून बनाने का अधिकार है, जैसे – रक्षा, विदेश नीति, डाक व्यवस्था आदि।
राज्य सूची में ऐसे विषय हैं जिन पर राज्य विधानमंडल को विधायी अधिकार प्राप्त है, जैसे – कृषि, पुलिस, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति आदि।
समवर्ती सूची में वे विषय आते हैं जिन पर केन्द्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं, जैसे – शिक्षा, विवाह, अनुबंध, अपराध, वन आदि।
यदि समवर्ती सूची के किसी विषय पर केन्द्र और राज्य दोनों ने कानून बना लिया हो और दोनों में विरोध हो, तो संविधान के अनुच्छेद 254 के अनुसार, केन्द्र का कानून प्रभावी माना जाता है। यह केन्द्र की सर्वोच्चता को दर्शाता है।
इसके अतिरिक्त, संविधान में कुछ विशेष परिस्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें संसद को राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाने की अनुमति मिलती है।
पहली स्थिति तब उत्पन्न होती है जब राज्यसभा विशेष बहुमत से यह घोषणा करे कि किसी राज्य विषय पर संसद द्वारा कानून बनाना राष्ट्रीय हित में आवश्यक है।
दूसरी स्थिति राष्ट्रपति द्वारा घोषित आपातकाल की होती है, जब संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।
तीसरी स्थिति में, जब दो या अधिक राज्य यह अनुरोध करते हैं कि संसद किसी राज्य विषय पर कानून बनाए, तो संसद ऐसा कर सकती है और वह कानून उन्हीं राज्यों पर लागू होगा।
इसके अलावा, यदि कोई राज्य ऐसा कानून बनाता है जो केन्द्र के किसी पूर्ववर्ती कानून से टकराता है, तो उसे लागू करने के लिए राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक होती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य कानून, केन्द्र के कानून के अधीन हैं।
भारतीय संविधान में विधायी शक्तियों के वितरण का यह तंत्र एक संतुलन स्थापित करने का प्रयास है, लेकिन इसमें केन्द्र को वरीयता दी गई है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि देश की एकता, अखंडता और प्रशासनिक कार्य कुशलता बनाए रखी जा सके।
निष्कर्षतः, भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों के बीच विधायी सम्बन्धों की व्यवस्था सुव्यवस्थित एवं स्पष्ट है, परन्तु यह स्पष्ट रूप से केन्द्र-प्रधान है। यद्यपि राज्यों को भी अनेक विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु राष्ट्रीय महत्व, आपातकालीन स्थितियाँ तथा अन्य संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से केन्द्र को प्रमुखता प्राप्त है। इस प्रकार, भारत की विधायी व्यवस्था एक लचीली संघात्मक व्यवस्था है, जो विविधताओं के बावजूद एकता को प्राथमिकता देती है।
प्रश्न 15 – राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संबंधों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर - भारतीय संघीय व्यवस्था में राज्यपाल और मुख्यमंत्री राज्य कार्यपालिका के दो प्रमुख स्तंभ होते हैं। यद्यपि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख होते हैं, वहीं मुख्यमंत्री वास्तविक कार्यपालिका का मुखिया होता है। दोनों की भूमिकाएं संविधान द्वारा परिभाषित हैं और इनके बीच सहयोगात्मक संबंध अपेक्षित है, लेकिन कई बार इन संबंधों में तनाव भी देखने को मिलता है।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संबंधों की प्रकृति:
1. संवैधानिक अधीनता का संबंध:
राज्यपाल संविधान के अंतर्गत राज्य का प्रमुख होता है, लेकिन वह अधिकांश कार्य मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर करता है। इसलिए उनका संबंध एक संवैधानिक अधीनता और मार्गदर्शन का होता है।
2. कार्यपालिका संबंध:
मुख्यमंत्री, राज्यपाल को मंत्रिपरिषद के निर्णयों से अवगत कराता है। राज्यपाल, मुख्यमंत्री को अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मार्गदर्शन दे सकते हैं। यह एक सलाह-मशविरे पर आधारित संबंध है।
3. राजनीतिक संबंध:
कई बार राज्यपाल केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त होता है, और अगर राज्य में विपक्षी दल की सरकार हो, तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे प्रशासनिक कामकाज प्रभावित हो सकता है।
संबंधों में सहयोग:
1. नियमित संपर्क:
मुख्यमंत्री राज्यपाल को नीति निर्णयों, विधेयकों, और प्रशासनिक मामलों की जानकारी देता है।
2. विधानसभा सत्र:
विधानसभा का सत्र बुलाने, भंग करने, विधेयक पर हस्ताक्षर करने में राज्यपाल को मुख्यमंत्री की सलाह लेनी होती है।
3. आपात स्थिति में सहयोग:
संकट के समय जैसे बाढ़, महामारी, या कानून-व्यवस्था बिगड़ने पर दोनों मिलकर काम करते हैं।
संबंधों में टकराव के कारण:
1. विधेयकों पर अनावश्यक विलंब:
राज्यपाल कई बार राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों को लंबित रखते हैं या वापस भेज देते हैं।
2. मुख्यमंत्री की सलाह को अस्वीकार करना:
कुछ अवसरों पर राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह को न मानकर स्वतंत्र रूप से निर्णय लेते हैं, जिससे विवाद होता है।
3. राजनीतिक हस्तक्षेप:
केंद्र सरकार के प्रभाव में राज्यपाल द्वारा राज्य सरकार के कार्यों में अनावश्यक दखल देना संबंधों में कटुता उत्पन्न करता है।
सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका:
सरकारिया आयोग और पंची आयोग ने भी राज्यपाल को गैर-राजनीतिक भूमिका निभाने की सलाह दी है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह से ही कार्य करना चाहिए, केवल विशेष परिस्थितियों में ही स्वतंत्र निर्णय ले सकता है।
निष्कर्ष:
राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच संबंधों का आधार आपसी सहयोग, संवैधानिक मर्यादा और राजनीतिक निष्पक्षता पर होना चाहिए। यदि दोनों अपने-अपने दायरे में रहकर कार्य करें, तो राज्य का प्रशासन अधिक प्रभावी और लोकतांत्रिक रूप से सुदृढ़ हो सकता है। संविधान की भावना यही है कि राज्यपाल मार्गदर्शक की भूमिका निभाएं और मुख्यमंत्री राज्य की कार्यपालिका का संचालन करें।
प्रश्न 16 – मंत्री परिषद क्या है? मुख्यमंत्री से उसके संबंध क्या हैं?
उत्तर - भारतीय राज्य व्यवस्था में मंत्री परिषद (Council of Ministers) और मुख्यमंत्री (Chief Minister) राज्य कार्यपालिका के दो अत्यंत महत्वपूर्ण अंग हैं। दोनों का संबंध परस्पर पूरक और उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। संविधान ने राज्य कार्यपालिका की संरचना इस प्रकार की है कि मुख्यमंत्री और मंत्री परिषद मिलकर राज्य प्रशासन का संचालन करते हैं।
मंत्री परिषद क्या है?
मंत्री परिषद राज्य सरकार की कार्यपालिका का वास्तविक संचालन करने वाला समूह होता है। यह उन मंत्रियों का समूह है जो मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कार्य करते हैं और राज्यपाल को सलाह देने का कार्य करते हैं।
विशेषताएँ:
1. सामूहिक उत्तरदायित्व – मंत्री परिषद, राज्य की विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है।
2. मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कार्य – सभी मंत्री मुख्यमंत्री के अधीन होते हैं और उन्हीं के मार्गदर्शन में कार्य करते हैं
3. राज्यपाल को सलाह देना – यह परिषद राज्यपाल को शासन से संबंधित विषयों पर सलाह देती है, जिसे राज्यपाल को मानना अनिवार्य होता है (कुछ अपवादों को छोड़कर)।
4. विभिन्न विभागों का संचालन – अलग-अलग मंत्री विभिन्न विभागों (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि) का संचालन करते हैं।
मुख्यमंत्री और मंत्री परिषद के बीच संबंध:
1. मुख्यमंत्री – परिषद का प्रमुख:
मुख्यमंत्री मंत्री परिषद का प्रमुख होता है। वह न केवल मंत्रियों की नियुक्ति में मुख्य भूमिका निभाता है, बल्कि उनका मार्गदर्शन भी करता है।
2. मंत्रियों की नियुक्ति और त्यागपत्र:
राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर ही अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। यदि मुख्यमंत्री त्यागपत्र देता है, तो पूरी मंत्री परिषद स्वतः ही भंग हो जाती है।
3. नीति निर्माण में नेतृत्व:
मुख्यमंत्री मंत्री परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और राज्य की नीतियों को निर्धारित करता है। उसके विचारों का मंत्री परिषद में विशेष महत्व होता है।
4. सामूहिक उत्तरदायित्व की धुरी:
यद्यपि मंत्री परिषद सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है, लेकिन उसका नेतृत्व मुख्यमंत्री करता है। इसलिए वह सरकार के हर निर्णय के लिए राजनीतिक रूप से सबसे अधिक उत्तरदायी होता है।
5. राज्यपाल से संपर्क सूत्र:
मुख्यमंत्री राज्यपाल और मंत्री परिषद के बीच संपर्क सूत्र की भूमिका निभाता है। वह राज्यपाल को मंत्रिपरिषद के निर्णयों से अवगत कराता है।
निष्कर्ष:
मंत्री परिषद और मुख्यमंत्री का संबंध एक संगठित और सहयोगात्मक ढांचे पर आधारित होता है। मुख्यमंत्री जहां इस परिषद का नेता होता है, वहीं मंत्री परिषद उसके नेतृत्व में कार्य करती है। दोनों के बीच विश्वास, अनुशासन और सहयोग आवश्यक होता है, जिससे राज्य प्रशासन सुचारु रूप से संचालित हो सके। भारतीय संविधान ने इन संबंधों को लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित करते हुए राज्य की कार्यपालिका को उत्तरदायी और प्रभावी बनाया है।
प्रश्न 17 - राज्य विधान मंडल की व्यवस्थाओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर: भारत के प्रत्येक राज्य में विधायी कार्यों के संचालन हेतु एक विशेष संस्था होती है जिसे राज्य विधान मंडल कहा जाता है। यह संस्था संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों एवं नियमों के अंतर्गत कार्य करती है। राज्य विधान मंडल की रचना, कार्यप्रणाली, शक्तियाँ और उसके विभिन्न पक्ष भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 से 212 तक वर्णित हैं।
राज्य विधान मंडल की संरचना:
राज्यों में दो प्रकार की विधान मंडल प्रणाली होती है:
1. एकसदनीय विधान मंडल (Unicameral Legislature)
अधिकांश राज्यों में केवल एक सदन होता है जिसे विधान सभा कहा जाता है।
2. द्विसदनीय विधान मंडल (Bicameral Legislature)
कुछ राज्यों में दो सदन होते हैं —
विधान सभा (Legislative Assembly)
विधान परिषद (Legislative Council)
वर्तमान में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और कर्नाटक में द्विसदनीय व्यवस्था है।
1. विधान सभा (Legislative Assembly)
यह राज्य विधान मंडल का मुख्य और निचला सदन होता है इसके सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से चुने जाते हैं सदस्य संख्या: संविधान में न्यूनतम 60 और अधिकतम 500 सदस्य निर्धारित हैं (कुछ अपवाद संभव हैं जैसे सिक्किम)।
कार्यकाल: 5 वर्ष का होता है लेकिन राज्यपाल इसे कभी भी भंग कर सकते हैं।
अध्यक्ष: इसका संचालन विधान सभा अध्यक्ष करते हैं।
मुख्य कार्य:
विधायन प्रक्रिया (कानून बनाना)
बजट और धन विधेयक पारित करना मंत्रिपरिषद को उत्तरदायी बनाना जनता की समस्याओं को उठाना
2. विधान परिषद (Legislative Council)
यह उच्च सदन होता है लेकिन सभी राज्यों में नहीं होता। इसके सदस्य प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार से चुने जाते हैं सदस्य संख्या: यह विधान सभा के सदस्यों की संख्या के अधिकतम 1/3 हो सकती है। कार्यकाल: विधान परिषद एक स्थायी सदन है, लेकिन इसके एक-तिहाई सदस्य हर दो वर्ष में सेवानिवृत्त होते हैं।
अध्यक्ष: इसका संचालन विधान परिषद अध्यक्ष करते हैं।
मुख्य कार्य:
विधेयकों पर पुनर्विचार करना विशेषज्ञ सुझाव देना शिक्षकों, स्नातकों, निकायों के प्रतिनिधियों को मंच देना
राज्य विधान मंडल की विधायी प्रक्रिया:
1. विधेयक का प्रस्तुतीकरण: किसी भी सदन में विधेयक पेश किया जा सकता है (धन विधेयक केवल विधानसभा में)
2. चर्चा एवं पारित: विधेयक पर चर्चा होती है, संशोधन लिए जाते हैं और फिर मतदान कर पारित किया जाता है।
3. राज्यपाल की स्वीकृति: विधेयक राज्यपाल के पास भेजा जाता है; वे मंजूरी दे सकते हैं, अस्वीकार कर सकते हैं, या पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं।
राज्य विधान मंडल की प्रमुख शक्तियाँ:
1. विधायी शक्ति: राज्य सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाना
2. वित्तीय शक्ति: बजट पास करना, करों का निर्धारण करना
3. नियंत्रण शक्ति: मंत्रिपरिषद पर विश्वास/अविश्वास प्रस्ताव लाकर नियंत्रण
4. संविधान संशोधन: संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करना (केवल कुछ मामलों में)
सीमाएँ:
केंद्र सरकार के कानून राज्य कानूनों पर प्रमुखता रखते हैं।
राज्यपाल के पास कुछ मामलों में विचाराधीन विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने की शक्ति होती है।
निष्कर्ष:
राज्य विधान मंडल भारतीय संघीय प्रणाली में राज्यों को लोकतांत्रिक और स्वायत्त शासन प्रदान करने का एक सशक्त माध्यम है। यह संस्था न केवल राज्य में कानून बनाने का कार्य करती है, बल्कि कार्यपालिका पर नियंत्रण रखकर जनहित में शासन सुनिश्चित करती है। चाहे एकसदनीय हो या द्विसदनीय, राज्य विधान मंडल भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का आधार है।
प्रश्न 18 – स्थानीय स्वशासन से क्या तात्पर्य है? स्थानीय स्वशासन व पंचायतों के आपसी संबंधों को स्पष्ट करें।
उत्तर : स्थानीय स्वशासन का तात्पर्य :
स्थानीय स्वशासन से अभिप्राय उस शासन व्यवस्था से है, जिसमें जनता को उनके निकटतम स्तर पर शासन करने का अधिकार प्राप्त होता है। यह शासन प्रणाली स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति, योजनाओं का निर्माण, क्रियान्वयन और निर्णय लेने की शक्ति स्थानीय निकायों – जैसे पंचायतों और नगरपालिकाओं – को प्रदान करती है। स्थानीय स्वशासन लोकतंत्र का मूल आधार है, क्योंकि यह नागरिकों को सीधे प्रशासन में भाग लेने का अवसर देता है। यह शासन व्यवस्था जनसामान्य की समस्याओं का स्थानीय स्तर पर समाधान करने में सहायक होती है।
स्थानीय स्वशासन और पंचायतों के आपसी संबंध :
भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था पंचायती राज प्रणाली के माध्यम से की गई है। यह प्रणाली संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त कराई गई।
इनके आपसी संबंध निम्नलिखित हैं –
1. स्थानीय निकाय के रूप में पंचायतें :
पंचायतें स्थानीय स्वशासन की आधारशिला हैं। ग्राम स्तर से लेकर जिला स्तर तक पंचायतों को प्रशासनिक अधिकार दिए गए हैं ताकि वे स्थानीय विकास और जनकल्याण के कार्य कर सकें।
2. तीन-स्तरीय ढांचा :
पंचायत प्रणाली में ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर), पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर) और जिला परिषद (जिला स्तर) होते हैं। यह ढांचा स्थानीय स्वशासन की संरचना को मजबूत बनाता है।
3. निर्णय लेने की स्वतंत्रता :
पंचायतों को योजनाएँ बनाने, विकास कार्यों का चयन करने, कर लगाने और व्यय करने की स्वतंत्रता स्थानीय स्वशासन के अंतर्गत मिलती है।
4. जन सहभागिता :
पंचायत चुनावों के माध्यम से नागरिक प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं, जिससे जनता का शासन में सीधा हस्तक्षेप होता है।
5. वित्तीय स्वायत्तता :
पंचायतों को कर लगाने और केंद्र एवं राज्य सरकार से अनुदान प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है, जिससे वे अपने कार्यों को स्वतंत्र रूप से संचालित कर सकें।
6. ग्राम सभा की भूमिका :
ग्राम सभा पंचायत प्रणाली का मूल आधार है। यह स्थानीय स्वशासन का सर्वोच्च निकाय होता है जहाँ सभी मतदाता भाग लेते हैं और निर्णयों पर चर्चा करते हैं।
निष्कर्ष :
स्थानीय स्वशासन भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है, और पंचायतें इसकी प्रमुख संवाहक इकाई हैं। इनके माध्यम से आम जनता शासन प्रक्रिया में भाग लेती है तथा अपने क्षेत्र के विकास व समस्याओं के समाधान में सक्रिय भूमिका निभाती है। इस प्रकार, पंचायतें और स्थानीय स्वशासन एक-दूसरे के पूरक एवं अविभाज्य अंग हैं।
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